भारतीय भाषाओं की बात के बगैर पूरी नहीं हो सकती। प्रो. देवी के नेतृत्व में पीपल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया ने भारत की 780 जीवित भाषाओं का सर्वेक्षण प्रकाशित किया था, जिसमें अब तक की सबसे अधिक भारतीय भाषाएं हैं। उनका मानना है कि भाषाएं अपनी लिपि से नहीं, बल्कि अपने बोलने वालों से जिंदा रहती हैं। कहां हैं इतनी सारी भाषाएं, कौन हैं उनके बोलने वाले, इन सब विषयों पर उनसे अश्विनी शर्मा ने बात की। प्रस्तुत हैं मुख्य अंश : लीड्स यूनिवर्सिटी से पीएचडी करने के बाद वडोदरा में अंग्रेजी प्राध्यापक बनने और फिर वहां से भाषाओं को खोजने की अपनी यात्रा के बारे में बताइए। बड़ौदा यूनिवर्सिटी में मैंने 1980 से लेकर 1995 तक पढ़ाया। इस वक्फे में, जैसा कि आमतौर पर होता है, लेक्चरर से रीडर बनना, फिर प्रफेसर बनना, किताब लिखना चलता रहा। इस बीच मेरी अंग्रेजी की किताब 'आफ्टर अम्नेसिया' को साहित्य अकादमी अवॉर्ड भी मिल गया। पर इस दौरान मैं और मेरी पत्नी शनिवार-रविवार को स्कूटर से नजदीकी आदिवासी गांवों में जाते। विद्यार्थियों के साथ मिलकर छोटे-मोटे रिलीफ वर्क करते। इसके साथ ही भाषाओं को खोजने की यात्रा भी चल रही थी। मैंने 1970 के दशक में अपनी पीएचडी के दौरान ही गियर्सन का लैंग्वेज सर्वे पढ़ा। सेंसस ऑफ इंडिया के आंकड़े देखे, तो मैं चौंक गया। 1961 के सेंसस की तुलना में 1971 में 109 भाषाओं के बारे में ही बताया गया था। 109 नंबर के सामने लिखा था 'ऑल अदर्स।' ये ऑल अदर्स क्या है? 1961 में 1652 भाषाएं थीं। फिर बाकी भाषाएं कहां गईं? जब मैं इन गांवों में गया, तो मुझे पता चला कि ये गुम हुई भाषाएं आदिवासियों, घुमंतुओं और छोटे-छोटे समुदायों की हैं। मुझे लगा कि यूनिवर्सिटी में पढ़ाता रहूं, इससे भाषा का कोई भला होने वाला नहीं है। 1995 में मैंने यूनिवर्सिटी से त्यागपत्र दे दिया। आपने तेजगढ़ में आदिवासी अकादमी की स्थापना की और हिंदुस्तान की भाषाओं का सर्वेक्षण किया। यह काम कितना पूरा हुआ है? जब मैंने यूनिवर्सिटी छोड़ी, तो तय किया था कि मैं खुद आदिवासियों के बीच जाकर देखूंगा, उनको सुनूंगा, उनके बारे में लिखूंगा और उसे दुनिया तक पहुंचाऊंगा। भाषा की मेरी समझ थोड़ी अलग है। मेरा मानना है कि अगर किसी समुदाय का कोई इंसान जिंदा हो, तो ही उसकी भाषा जिंदा रह सकती है। इंसानों के बगैर कागज पर लिखे शब्दों को मैं भाषा नहीं मानता। अगर भाषा जिंदा रखनी है, तो उसका व्यवसाय होना चाहिए, तभी वह भाषा बचेगी। ऐसा ठानकर मैंने आदिवासियों की मदद से उनके ही क्षेत्र में सीड बैंक, वाटर बैंक, स्कूलिंग, हेल्थ केअर के काम शुरू किए। इन कार्यों को मैं भाषा के कार्य ही मान रहा था। जब इस अकादमी का काम कुछ स्थिर हुआ, उनमें सेल्फ कॉन्फिडेंस आया, तो मैंने भाषा सर्वेक्षण के काम की शुरुआत की। आज जब मैं पीछे मुड़कर 25 वर्ष पहले का वक्त देखता हूं, तो लगता है कि व्यावहारिक तौर पर हमने अपने लक्ष्य प्राप्त कर लिए हैं। हालांकि पूरी दुनिया की भाषाओं को जानने, उस भाषा में उनके संस्कार, जीवन और पर्यावरण से उनके रिश्ते की जानकारी का काम अभी अधूरा है। आपने महाश्वेता देवी के साथ मिलकर घुमंतू समुदायों के लिए भी काम किया है। इनकी हालत आज भी खराब क्यों है? 1998 में महाश्वेता देवी वेरियर एल्विन लेक्चर देने बड़ौदा आई थीं। उन्होंने बंगाल के विमुक्त, घुमंतू और अर्द्ध घुमंतू समुदायों के बारे में बोला था। उस समय लक्ष्मण गायकवाड़ भी वहीं मौजूद थे। उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र में भी ऐसे समुदाय रहते हैं। गुजरात में मैं इन समुदायों को देख ही रहा था। अगले दिन हम तीनों ने मिलकर एक छोटा संगठन 'डीएनटी राइट्स एक्शन ग्रुप' बनाया। हम इन समुदायों के अधिकारों और न्याय के सवालों को लेकर राज्यों के सामाजिक न्याय विभाग के सचिवों से मिलते थे। उसी समय मानव अधिकार आयोग के चेयरमैन जस्टिस वेंकटचलैया बने थे। उन्होंने हमें बुलाकर इसके बारे में पूछा। हमने उनसे एक इन्क्वायरी कमिटी बनाने का आग्रह किया, जिसके अध्यक्ष राजीव धवन थे। मानवाधिकार आयोग ने ऐतिहासिक निर्णय दिया कि जब तक अभ्यस्त अपराधी कानून खत्म नहीं होगा, तब तक घुमंतू समुदायों की पहचान अपराधी की ही होगी। कुछ राज्य सरकारों ने इसे माना, कुछ ने नहीं माना। उसके कुछ समय बाद गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिले, तो उन्होंने आयोग बनाने का आश्वासन दिया। लेकिन यह एक लचर आयोग बना। फिर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने। उनसे मिले तो उन्होंने आयोग बनाया, पर उसमें भी कुछ काम हुआ, कुछ बाकी रह गया। हमारा ऐकडेमिक जगत आज भी घुमंतुओं को चोर-उचक्का या खेल-तमाशे वाला ही मानता है, जबकि ये समुदाय दुनिया की सबसे पुरानी और प्रकृति से जुड़ी संस्कृति को संजोने वाले हैं। यह किसकी विफलता है? हमारे यहां यूनिवर्सिटी में जो शिक्षा दी जाती है, उसके बहुत परिणाम हैं। इनमें एक यह भी है कि यहां से पढ़कर निकला व्यक्ति खुद को बाकी समाज से अलग मानता है। उसकी वजह है कि हमारा समाज जाति में उलझा हुआ है। जब वे यूनिवर्सिटी में आते हैं तो उन्हें आजादी का अहसास होता है, जो सही भी है। यहां वे मानने लगते हैं कि सामाजिक उत्तरदायित्व हमारा काम नहीं है। ये काम किसी राजनीतिक दल या हल्ला-गुल्ला करने वाले का है। साथ ही गांवों में घुमंतू समुदायों की जनसंख्या भी कम है, जिसके कारण इस विषय को अकादमिक विमर्श में वह जगह नहीं मिल पाई है, जो कि दलित विमर्श या स्त्री विमर्श को मिली है। इनके बारे में जो किताबें भी लिखी गई हैं, उन्हें पढ़कर ऐसा लगता है जैसे ये लोग किसी दूसरे ग्रह से आए हों।