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Food New York TimesBy BY NIKITA RICHARDSON Via NYT To WORLD NEWS

Saturday, August 14, 2021

92 साल की उम्र, पर नहीं भूलती 11 कोड़ों की चोट, आज भी देश प्रेम का जज्बा जगा जाती है

अभिषेक झा, वाराणसीदेश आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है। इन 75 वर्षों में बहुत कुछ बदला पर जिन लोगों ने वह समय देखा है वे आज भी दोबारा गुलाम होने से डरते हैं। शहर के परेड कोठी इलाके में रहने वाले, 1971 में बांग्लादेश बंटवारे के समय राष्ट्रपति पदक से सम्मानित तिलक राज कपूर को वाराणसी में सभी जानते हैं। तिलक राज कपूर एक दिलेर व्यक्ति और एक सामजिक इंसान हैं, पर आजादी के आंखों देखे हाल को याद कर इस दिलेर की भी आंखें नम हो गई हैं। 20 मार्च 1929 में लाहौर के देवी दत्त के घर जन्मे तिलक राज कपूर ( 92) ने आजादी के दौर के बारे में बात की तो आजादी के वे 6 महीने इनकी आंखों में आंसू बनकर तैर गए। तिलक ने मुस्कुराते हुए कहा आजादी के पर्व पर आजादी के मतवाले की याद आई है। तिलक से बातचीत शुरू हुई तो तिलक ने कहा सब ठीक था पर मार्च 1943 में जेल में मिली 11 कोड़ों की सज़ा आज भी दिल में आजादी का जुनून जगा जाती है। पिता के साथ सत्याग्रह में होते थे शामिलतिलक राज कपूर ने बताया कि जब मैं 15 साल का था उस समय अपने पिता के साथ सत्याग्रह आंदोलनों में जाया करता था। सत्याग्रह स्थल पर एक ऊंचा मचान बनाया जाता था, जिसे उस मचान पर जगह मिलती थी, वही सत्याग्रही माना जाता था। साल 1942 में जब अगस्त क्रान्ति (भारत छोड़ो आंदोलन) शुरू हुई तो मैं बहुत छोटा था पर दिल में पिताजी की तरह देश को आजाद कराने का जज़्बा था इसलिए मैंने भी अपने लिए काम मांग लिया। मुझे दीवारों पर नारे लिखने का काम मिला जिसे मैंने बखूबी अंजाम दिया। उस आंदोलन में पूरा देश कूद चुका था। सबको आजादी चाहिए थी। नहीं भूलती वह 11 कोड़ों की सज़ातिलक राज कपूर की आजादी की लड़ाई में बहुत से मुकाम आए। जब फिरंगियों का सामना हुआ, चोट भी लगीं, लाठी भी खाई, मगर तिलक मार्च 1943 के जेल में खाए गए 11 कोड़े आज भी नहीं भूलते। तिलक बताते हैं, 'सत्याग्रही मचान पर बैठे थे। मैं भी किसी तरह उस मचान पर चढ़ गया और सत्याग्रहियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। मेरी उम्र देखकर मुझे 11 कोड़ों की सजा सुनाई गई। जेल में रहते हुए मेरी कम उम्र की वजह से फिरंगियों ने मेरी ड्यूटी सत्याग्रहियों को पानी पिलाने की लगाई थी। आज भी अक्सर मुझे वो कोड़े याद आते हैं तो दिल में आजादी का जुनून जाग उठता है। दो महीने पहले से आने लगी थी आजादी की खुशबूतिलक बताते हैं, 'आजादी की बात जब सन 1947 में चलना शुरू हुई तो सबसे पहले बंटवारे की खाई सामने आ गई। दोनों ही कौम के कट्टरपंथी खुद को अलग करने पर उतारू थे। आजादी हमें 15 अगस्त सन 1947 को मिली पर लाहौर और अन्य सीमांत प्रांतों में आजादी की खुशबू 2 महीना पहले से आनी शुरू हो गई थी। मगर इसमें इंसानी खून की महक और चीत्कार भी शामिल थी। चारों तरफ कट्टरपंथियों का हुजूम नारे लगाता दिखाई पड़ता था, दंगे भड़क चुके थे। सड़कों पर निकलने के बाद कोई अपने घरों तक महफूज़ पहुंचेगा या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं थी। चारों ओर चीख पुकार और कत्ले आम मचा था। हमारे घर के पास रोज़ किसी न किसी की हत्या हो रही थी। 'आजादी के दो महीने बाद तक चला दंगा'कपूर कहते हैं कि हिन्दुस्तान की गलियों में आजादी का जश्न मनाया जा रहा था, और पंजाब में दंगों का खौफ था। इधर से मुस्लिमों को लेकर जाने वाली ट्रेन को हिन्दू कट्टरपंथी आग के हवाले कर देते थे। उधर से आने वाली ट्रेन को बीच रास्ते में मुस्लिम कट्टरपंथी रोककर सभी यात्रियों को काट दिया करते थे। अक्टूबर के बाद कुछ हालात सामान्य हुए। लोग शरणार्थी कैम्पों में शरण लेकर अपनी जान बचाते थे। हमारे परिवार के 17 सदस्यों ने भी एक महीने तक शरणार्थी कैम्प में शरण ली। कैम्प से एक किलोमीटर पैदल चलकर मंडी बहुउद्दीन (अब पाकिस्तान में) स्टेशन से ट्रेन पकड़कर भारत आये। गांधी जी की अहिंसा से हुए प्रभाविततिलक राज कपूर ने बताया कि आजादी की लड़ाई में कूदने से पहले मेरठ में पढ़ाई कर रहे थे। रोज़ गांधी जी के अहिंसा के बारे में साथी सहपाठियों से चर्चा होती थी। अगस्त क्रान्ति में जब गांधी जी ने पूरे देश से आह्वाहन किया तो मैं खुद को रोक नहीं पाया। पूरे जीवन काल में एक बार लाहौर से फ्रंटियर जाते हुए लाला मूसा रेलवे स्टेशन (अब पाकिस्तान में) और आजादी के बाद एक बार दिल्ली में प्रार्थना सभा में गांधी जी से मुलाकात का मौका मिला।

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